पुस्तक- इरफ़ान : और कुछ पन्ने कोरे रह गए

जाने-माने फिल्म पत्रकार ‘अजय ब्रह्मात्मज’ की इस पुस्तक में इरफान के जीवन को इन्टरव्यू और लेखों के माध्यम से पन्नों पर उकेरा गया है। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है। पहले भाग का शीर्षक है- “……कुछ पन्ने कोरे रह गए : इरफान”। इसमें हमें इरफ़ान के साक्षात्कार, प्रसिद्ध फिल्मों की समीक्षा, उनके पत्र और कुछ लेख पढ़ने को मिलेंगे। इसको लेकर भूमिका में स्पष्ट किया गया है कि पुस्तक का यह भाग सन् 2020 में ‘ई बुक’ के रूप में प्रकाशित हो चुका है।
इस पुस्तक के दूसरे भाग का शीर्षक है ‘इरफ़ानियत’ ,जिसमें इरफ़ान के मित्र, उनके सहयोगियों और कई चर्चित हस्तियों के लेख संकलित किए गए हैं। इन लेखों के माध्यम से सबने अपने-अपने तरीके से इरफ़ान को याद किया है। यह भाग भी सन् 2021 में ‘ई बुक’ के रूप में प्रकाशित हो चुका है।
इन दोनों भागों को मिलाकर इस पुस्तक को तैयार किया गया है इसमें इरफ़ान से जुड़े कई दिलचस्प किस्से पढ़ने को मिलते हैं जैसे- उनके एक मित्र और रंगकर्मी ‘आलोक चटर्जी’ एनएसडी के दिनों को याद करते हुए उनके बार में लिखते हैं-
“उन दिनों हम उसे ब्वॉयज हॉस्टल में इर्फू कहकर ही बुलाते थे। बेहद संकोची, अत्यंत संवेदनशील और अकसर चुप रहनेवाला, पर ठीक मौके पर एक-दो वाक्य में अपनी राय जाहिर कर देना उसकी आदत थी। वह फिल्मों का बेतहाशा दीवाना था, दीवाना भी ऐसा कि दिनभर एनएसडी की क्लास और रिहर्सल खत्म होने के बाद रात 10 या 11 का शो नेहरू प्लेस, चाणक्य सिनेमा में पैदल चलकर देखना और फिर उस फिल्म अभिनय पर उसका इतना जोर था कि वह शैलीबद्ध व सांगीतिक प्रस्तुतियों में बहुत ही बेमन से काम करता या अवकाश मांग लेता। बिना यथार्थवाद के अभिनय करना उसके लिए पूर्वाभ्यास में भी निषेध था।”
इसी तरह एक साक्षात्कार में जब उनसे पूंछा जाता है-
“आपको एक्टर बनना है और मुंबई में जाकर, यह क्या आपने पहले से सोचा था ?”
इसपर वह जबाव देते हैं-
“यह मेरे दिमाग में क्लीयर था। जब मैं एनएसडी आया था तो फिल्में करने के लिए आया था। फिल्में देखकर मेरे भीतर एक्टिंग करने की इच्छा पैदा हुई और थिएटर से मैं बिल्कुल एक्सपोज नहीं था। थिएटर मैंने इसलिए शुरू किया कि मुझे एनएसडी जाना था। बचपन में फिल्में देखने की इजाजत नहीं थी, लेकिन जब भी देखता था फिल्में ,जैसे जादू हो जाता था। याद आती रहती थी वह कहानी, वे कैरेक्टर ,तो वो जो जादू था सिनेमा का, उसी ने मुझे यहां खींचा था।”
इन सभी पड़ावों से गुजरता हुआ इरफ़ान का जीवन जब एक दुर्लभ बीमारी की चपेट में आ जाता है। वह लेखक को अपनी स्थिति बताते हुए अंतिम संदेश भेजते हैं-
“चार दिन हुए हैं। इन्होंने कीमो का पहला साइकिल दिया है। उसके सब रिएक्शन धीरे-धीरे शुरू हो रहे हैं मेरे बॉडी में….लेकिन मेरे दर्द की इंतहा बढ़ चुकी थी, जो काबिल-ए-बर्दाशत नहीं थी, तो इन लोगों ने कुछ मोर्फिन-वोर्फिन देकर, उसको दबा दिया है दर्द को।”
वाकई इसे पढ़ते हुए आंखें नम हो जाती हैं। आज भले ही इरफान हमारे बीच न हों लेकिन उन्होंने अभिनय की जो परिभाषा गढ़ी है, उससे वह सदैव के लिए अमर हो गए हैं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस पुस्तक में इरफ़ान के जिन पहलुओं को उजागर किया गया वह नई पीढ़ी के लिए प्रेरणाश्रोत बन सकते हैं और यदि आप इरफान के प्रशंसक है ,तब आपको यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।

पुस्तक- ‘इरफ़ान : और कुछ पन्ने कोरे रह गए
लेखक – अजय ब्रह्मात्मज
प्रकाशक – सरस्वती प्रकाशन
मूल्य – 299

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